जेल की चारदीवारी मे मेरा दम घुटता है माँ I
मैं झाँकू बाहर तो थोड़ा कम् घुटता है माँ II
बाहर की आवाजें बुलाती हैं मुझे I
यादें घर की रुलाती हैं मुझे II
मैं कागज़ को क़लमों को अपना मानता हूँ बस I
इस अकेलेपन मे खुद को ही पहचानता हूँ बस II
मेरी अधूरी ख्वाइशें अब इन कागज़ों पे लिखता हूँ मैं I
भूल चूका हूँ कि कैसी है दुनिया कैसा दिखता हूँ मैं II
मेरे सपनों को मैं रोज सपनों मे देखता हूँ अब I
छोटे से लौदान से कागज़ के टुकड़े बाहर फैंकता हूँ अब II
जो होता है आखिर भले के लिए ही होता है माँ I
तेरा बेटा अब हर रोज तुझे देखने को रोता है माँ II
डर लगता है जब जब थानेदार मुआयने पे निकलता है माँ I
पर चोरी की थी जिस खाने की अब हर रोज मुझे यहाँ वो मिलता है माँ II
$andy's
No comments:
Post a Comment